डरना है क्या

 बाँट लेते हैं हम ख्वाब का हर शहर 

जानते हैं अखिल ख्वाब होते नहीं 

फिर भी बचपन में तोड़े हैं तारे कभी 

चाँद से भी कोई रिश्तेदारी रही 

आज भी मन ललकता है उस ख्वाब को 

फिर भी सपने सजाने से डरना है क्या  ?


उड़ते जाते हैं हम बादलों से परे 

जानते हैं नई सृष्टि होती नहीं 

फिर भी दादी की कोई कहानी सुनी 

उस परी से एक  नातेदारी  रही

आज भी मन में रहती वो कहानी कहीं 

फिर बादलों मै उड़ने से डरना हैं क्या  ? 


कहते जाते हैं हम सीमाओं से परे 

जानते हैं रिश्तों की मियाद होती नहीं 

फिर भी सरहद के उस छोर अपना सा कोई 

उस अजनबी भी से एक खातेदारी रही 

आज भी मन में रहता हैं वो परदेशी कहीं

फिर सरहदों ने पर जाने से डरना हैं क्या ?


साथ दे दे  घड़ी भर जब तलक चल सकें 

एक दिन दुनियां छूट जानी है यहीं 

Comments

Popular posts from this blog

दगडू नी रेन्दु सदानी

कहाँ अपना मेल प्रिये

प्राण