सोचता ही रहा

 ये उदासियाँ जो आज की 

न जाने ढूंढता है क्या  

नज़र गयी जिस दूर तक 

एक बाट टोहता रहा 


ये खामोशियाँ कहती कहाँ 

न जाने यूँ दबा है क्या 

बिखरा हुआ है दूर तक 

एक आस बांधता  रहा 


ये काम है जो रुका कहाँ 

न जाने भेद  है ये क्या 

संभावनाएं हैं दूर तक 

एक लक्ष्य साधता रहा 


ये अंकुर है जो दबा कहाँ 

न जाने बढ़ रहा है क्या 

उम्मीदें बढ़ीं हैं दूर तक 

सपना ये एक सजता रहा 


ये दिक्कतें रहती कहाँ 

न जाने रोकता है क्या 

लहराती पवन है दूर तक 

और मन तुझे सोचता ही रहा 

Comments

Popular posts from this blog

दगडू नी रेन्दु सदानी

कहाँ अपना मेल प्रिये

प्राण