नीर बहा न जाए

 पत्थर मन यूँ ठोकर ये 

पीड़ कहीं न जाए

कठोर बना है  सदा मन

ये दर्द सहा न जाए 


कब आँसूं निकले ठूठों से 

मिट्टी धंसा न जाए 

सूखा दरिया है सदा मन 

ये नीर बहा न जाए 


कब खड़े रहे पहाड़ सदा 

नीवों में धंसता जाए 

सूना जंगल है सदा मन

ये आग बुझी न जाए 


कराह जीवन है चीर धरती 

आवाज़ धँसीं सी जाए 

छूटता आँगन रहा सदा मन 

ये पहचान दबी सी जाए 


वो परिभाषित मान मनों  का 

कर्त्तव्य निभाए न जाए 

द्वन्द रहा बीच सदा मन 

खुद को खोता जाए 

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