गुस्सा नहीं हूँ

 कभी तो सरहदें अपनी 

तु होता लाँघ कर जाता 

कभी ख़ाली से पन्नो पर 

हमारा नाम लिख जाता 


कभी तो बंदिशें अपनी 

तु होता तोड़ कर आता 

कभी जीवन के आपा में 

हमारा हाल ले पाता 


कभी तो सीमाएं अपनी 

तु होता छोड़ कर आता 

कभी होता वो गुस्सा तो 

कभी हमको मना पाता 


कभी तो जोड़ता मन को 

कभी विखराव ठहराता 

कभी सहता ये नादानी 

कभी बाँहों में भर लेता 


वो चुप रहकर जताना क्या 

वो दूरी का आलिंगन क्या 

वो रूखे से दो शब्दों को 

कभी अपना मान कर कहता 


मैं आहत हूँ परेशां हूँ 

मगर गुस्सा नहीं तुझसे 

निभाकर भी अकेला हूँ 

कभी दो लब्ज़ कह देना 


कभी लिखना वो हाल-ए-दिल 

कभी कहना वो राज-ए-दिल 

कभी तो पूछना खुद से 

कि तुम्हारा हाल कैसा है ?


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