यवनिका

 निशीथ के नेपथ्य पर 

बैठा हुआ मैं सोचता हूँ 

यवनिका के पटाक्षेप में 

दवाग्नि को कैसे बुझाऊँ


वो दिवा के स्वप्न पर 

आरूढ़ थी जो कोशिशें 

उस खुशबू की साँस पर 

अब समर्पण कैसे माँगू


तन हुआ एक रंग सा 

मन सिंदूरी छा रहा है 

विश्वास की इस आस पर 

सूत्र अब कैसे पिरोयूं


अर्धसत्य ये जीवन अपना 

अर्ध चली राहें सफ़रों की 

मंजिल का जो ताना बाना

तुझसे दूर कहाँ अब जाऊँ


आ मुझको भी साथ में लेले 

चल मेरे भी संग सदा तू 

खोना पाना साथ लिखेंगे 

तुझ बिन कैसे संग निभाऊं 



Comments

Popular posts from this blog

दगडू नी रेन्दु सदानी

कहाँ अपना मेल प्रिये

प्राण