समर्पण सादगी का है

 जी भर बात करता हूँ 
हर रोज आईने से मैं 
चुपचाप उससे ज्यादा 
किसी ने सुना भी तो नहीं 

लिख देता हूँ हज़ार ख़्वाब
हर रोज़ डायरियों में 
खामोश उससे ज्यादा 
किसी ने पढ़ा भी तो नहीं 

जगता हूँ रात भर 
हर रोज़ चांदनी में 
एकटक उससे ज्यादा 
किसी को निहारा भी तो नहीं 

अनगिनत आशाएं मन की 
हर रोज़ सपने सजता हूँ 
चुपचाप उससे ज्यादा 
मन ने किसी को माना भी तो नहीं 

बहा है संग दरिया सा 
हर रोज़ नहाया हूँ 
सरोबोर उससे ज्यादा 
किसी के संग भीगा तो नहीं 

समर्पण सादगी का है 
हर रोज़ एक तपस्या है 
ध्यान लगाकर उससे ज्यादा 
कुछ माँगा भी तो नहीं 



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