हसीं शाम

 शाम थोड़ा नशे में जो मदहोश थी 
अपने आगोश में चाँदनी भर गया 
वो सिमटकर कहीं घुल गया साथ में 
मैं बिखरकर वहीँ और जम सा गया 

सुर्ख होते कमलदल खिल ही उठे 
भीगी बूंदों का उन्माद मन भर गया 
जकड़कर के बाहें खुली ही नहीं  
लाल चेहरे का समर्पण पढ़ सा लिया 

बात निकली जो मन से मन कह गयी 
शब्द आखों में आकर ठहर ही गए 
पाँव में पाँव रखकर चले दो कदम 
उससे आगे कहानी समर्पित रही 

होंठ होंठो से प्रतिदान कर ही गए 
बात चुप ही रही और बदल भी गयी 
होश थे फिर भी थोड़ा सा बेहोश से 
एक हसीं शाम जीवन की यूँ भी रही  


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